आचार्य श्रीराम शर्मा >> गायत्री महाविज्ञान - भाग 1 गायत्री महाविज्ञान - भाग 1श्रीराम शर्मा आचार्य
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प्रस्तुत है गायत्री महाविज्ञान का संयुक्त संस्करण...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
भूमिका
गायत्री वह देवी है जिससे सम्बन्ध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन-विकास के
मार्ग में बड़ी सहायता प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियाँ
हैं, जिनके कार्य और गुण पृथक्-पृथक् हैं। उन शक्तियों में
गायत्री
का स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह मनुष्य को सद्बुद्धि की प्रेरणा देती
है। गायत्री से आत्म-सम्बन्ध करने वाले मनुष्य में निरंतर एक ऐसी सूक्ष्म
एवं चैतन्य विद्युतधारा सञ्चार करने लगती है जो प्रधानतः मन, बुद्धि,
चित्त और अन्तःकरण पर अपना प्रभाव डालती है। बौद्धिक क्षेत्र के अनेकों
कुविचारों, असत् संकल्पों, पतनोन्मुख दुर्गुणों का अन्धकार गायत्री रूपी
दिव्य प्रकाश के उदय होने से हटने लगता है। यह प्रकाश जितना-जितना तीव्र
होने लगता है, अन्धकार का अन्त उसी क्रम से होता जाता है।
मनोभूमि को सुव्यवस्थित, स्वस्थ सतोगुणी एवं सन्तुलित बनाने में गायत्री का चमत्कारी लाभ असंदिग्ध है और यह भी स्पष्ट ही है कि जिनकी मनोभूमि जितने अंशों में सुविकसित है, वह उसी अनुपात में सुखी रहेगा, क्योंकि विचारों से कार्य होते है और कार्यों के परिणाम सुख-दुःख के रूप में सामने आते हैं। जिनके विचार उत्तम हैं, वह उत्तम कार्य करेगा, जिसके कार्य उत्तम हो उसके चरणों तले सुख-शान्ति लोटती रहेगी।
गायत्री उपसना द्वारा साधकों को बड़े-बड़े लाभ प्राप्त होते हैं। हमारे प्रदर्शन में अब तक अनेकों व्यक्तियों ने गायत्री उपासना की है। उन्हें सांसारिक और आत्मिक जो आश्चर्यजनक लाभ होते हैं, हमने अपनी आँखों से देखे हैं। इसका कारण यही है कि उन्हें दैवी वरदान के रूप में सद्बुद्धि प्राप्त होती है और उसके प्रकाश में उन सब दुर्बलताओं, उलझनों कठिनाईयों का हल निकल आता है, जो मनुष्य को दीन-हीन, दुःखी, दरिद्री, चिन्तातुर एवं कुमार्गगामी बनाती हैं। जैसे प्रकाश का न होना ही अन्धकार है, जैसे अन्धकार स्वतंत्र रूप से कोई वस्तु नहीं है। इसी प्रकार सद्ज्ञान का न होना ही दुःख है अन्यथा परमात्मा की इस पुण्य सृष्टि में दुःख का एक कण भी नहीं है। परमात्मा सत्-चित- आनन्द स्वरूप है, उसकी रचना भी वैसी ही है।
केवल मनुष्य अपनी आन्तरिक दुर्बलता के कारण, सद्ज्ञान के अभाव के कारण दुःखी रहता है अन्यथा सुर-दुर्लभ मानव-शरीर ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ धरती माता पर दुःख का कोई कारण नहीं, यहाँ सर्वथा आनन्द है। सद्ज्ञान की उपासना का नाम गायत्री साधना है।
मनोभूमि को सुव्यवस्थित, स्वस्थ सतोगुणी एवं सन्तुलित बनाने में गायत्री का चमत्कारी लाभ असंदिग्ध है और यह भी स्पष्ट ही है कि जिनकी मनोभूमि जितने अंशों में सुविकसित है, वह उसी अनुपात में सुखी रहेगा, क्योंकि विचारों से कार्य होते है और कार्यों के परिणाम सुख-दुःख के रूप में सामने आते हैं। जिनके विचार उत्तम हैं, वह उत्तम कार्य करेगा, जिसके कार्य उत्तम हो उसके चरणों तले सुख-शान्ति लोटती रहेगी।
गायत्री उपसना द्वारा साधकों को बड़े-बड़े लाभ प्राप्त होते हैं। हमारे प्रदर्शन में अब तक अनेकों व्यक्तियों ने गायत्री उपासना की है। उन्हें सांसारिक और आत्मिक जो आश्चर्यजनक लाभ होते हैं, हमने अपनी आँखों से देखे हैं। इसका कारण यही है कि उन्हें दैवी वरदान के रूप में सद्बुद्धि प्राप्त होती है और उसके प्रकाश में उन सब दुर्बलताओं, उलझनों कठिनाईयों का हल निकल आता है, जो मनुष्य को दीन-हीन, दुःखी, दरिद्री, चिन्तातुर एवं कुमार्गगामी बनाती हैं। जैसे प्रकाश का न होना ही अन्धकार है, जैसे अन्धकार स्वतंत्र रूप से कोई वस्तु नहीं है। इसी प्रकार सद्ज्ञान का न होना ही दुःख है अन्यथा परमात्मा की इस पुण्य सृष्टि में दुःख का एक कण भी नहीं है। परमात्मा सत्-चित- आनन्द स्वरूप है, उसकी रचना भी वैसी ही है।
केवल मनुष्य अपनी आन्तरिक दुर्बलता के कारण, सद्ज्ञान के अभाव के कारण दुःखी रहता है अन्यथा सुर-दुर्लभ मानव-शरीर ‘‘स्वर्गादपि गरीयसी’’ धरती माता पर दुःख का कोई कारण नहीं, यहाँ सर्वथा आनन्द है। सद्ज्ञान की उपासना का नाम गायत्री साधना है।
श्रीराम शर्मा आचार्य
गायत्री महाविज्ञान
वेदमाता गायत्री की उत्पत्ति
वेद कहते हैं - ज्ञान को। ज्ञान के चार भेद हैं - ऋक, यजु, साम और अथर्व।
कल्याण, प्रभु-प्राप्ति, ईश्वरीय-दर्शन दिव्यत्व, आत्म-शान्ति,
ब्रह्म-निर्वाण, धर्म-भावना, कर्तव्य-पालन, प्रेम, तप, दया, उपकार,
उदारता, सेवा आदि ऋक के अन्तर्गत आते हैं। पराक्रम, पुरुषार्थ, साहस,
वीरता, रक्षा, आक्रमण, नेतृत्व, यश विजय पद प्रतिष्ठा यह सब
‘यजुः’ के अन्तर्गत हैं।
क्रीड़ा, विनोद, मनोरंजन, संगीत-कला, साहित्य, स्पर्श इन्द्रियों के स्थूल भोग तथा उन भोगों का चिन्तन, प्रिय कल्पना, खेल, गतिशीलता, रुचि, तृप्ति आदि को ‘साम’ के अन्तर्गत लिया जाता है। धन, वैभव, वस्तुओं का संग्रह, शास्त्र, औषधि, अन्न, वस्तु धातु गृह, वाहन आदि सुख- साधनों की सामग्रियाँ ‘अथर्व’ की परिधि में आती हैं।
किसी भी जीवित प्राणधारी को लीजिये, उनकी सूक्ष्म और स्थूल, बाहरी और भीतरी क्रियाओं और कल्पनाओं का गम्भीर एवं वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिये, प्रतीत होगा कि इन्हीं चार क्षेत्रों के अन्तर्गत उसकी समस्त चेतना परिभ्रमण कर रही है। (1) ऋक्- कल्याण (2) यज-पौरुष (3) सम-क्रीड़ा (4) अथर्व-अर्थ। इन चार दिशाओं के अतिरिक्त प्राणियों की ज्ञान-धारा और किसी ओर प्रवाहित नहीं होती। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। यही चार ब्रह्माजी के मुख हैं। ब्रह्मा को चतुर्मुखी इसलिए कहा गया है कि वे एक मुख होते हुए भी चार प्रकार की ज्ञान धारा का निष्क्रमण करते हैं। वेद शब्द का अर्थ है- ‘ज्ञान’ इस प्रकार वह एक है, परन्तु एक होते हुए भी वह प्राणियों के अन्तःकरण में चार प्रकार का दिखाई देता है इसलिये एक वेद सुविधा के ऊपर चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। भगवान् विष्णु की चार भुजायें भी यही हैं। इन चारों विभागों को स्वेच्छापूर्वक करने के लिये चार आश्रम और चार वर्णों की व्यवस्था की गयी। बालक क्रीड़ावस्था में, तरुण अर्थावस्था में, वानप्रस्थ पौरुषावस्था में और संन्यासी कल्याणास्था में रहता है। ब्राह्मण ऋक है, क्षत्री यजु है, वैश्य अथर्व है, साम शूद्र है। इस प्रकार यह चतुर्विध विभागीकरण हुआ।
यह चारों प्रकार के ज्ञान उस चैतन्य शक्ति के ही स्फुरण हैं, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने उत्पन्न की थी और जिसे शास्त्रकारों ने गायत्री नाम से सम्बोधित किया है। इस प्रकार चार वेदों की माता गायत्री हुई। इसी से उसे ‘वेदमाता’ भी कहा जाता है इस प्रकार जल तत्व को बर्फ, भाप (बादल, ओस, कुहरा आदि), वायु (हाइड्रोजन-आक्सीजन) तथा पतले पानी के चार रूपों में देखा जाता है, जिस प्रकार अग्नि-तत्व को, ज्वलन, गर्मी, प्रकाश तथा गति के रूप में देखा जाता है, उसी प्रकार एक ‘ज्ञान-गायत्री’ के चार वेदों के चार रूपों में दर्शन होते हैं। गायत्री माता है, तो चार वेद इसके पुत्र हैं।
यह तो हुआ सूक्ष्म गायत्री का, सूक्ष्म वेदमाता का स्वरूप। अब उसके स्थूल रूप पर विचार करेंगे। ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पूर्व चौबीस अक्षर वाले गायत्री मन्त्र की रचना की। इस एक मंत्र के एक-एक अक्षर में सूक्ष्म तत्व आधारित किये गये हैं, जिनके पल्लवित होने पर चार वेदों की शाखा-प्रशाखायें तथा त्रुटियाँ उद्भूत हो गयीं। एक वट के बीज के गर्भ में महान वट वृक्ष छिपा होता है। जब वह अंकुर रूप में उगता है, वृक्ष के रूप में बड़ा होता है, तो उसमें असंख्य शाखायें, टहनियाँ, पत्ते, फूल, फल लद जाते है। इन सबका इतना बड़ा विस्तार होता है –जो उस मूल वट बीज की उपेक्षा करोडों-अरबों गुना बड़ा होता है। गायत्री के चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं, जो प्रस्फुटित होकर वेदों के महाविस्तार के रूप में अवस्थित होते हैं।
व्याकरण शास्त्र का उद्गम शंकर जी के वे चौदह सूत्र हैं, जो उनके डमरू से निकले थे। एक बार महादेवजी ने आनन्द-मग्न होकर अपना प्रिय वाद्य डमरू बजाया। उस डमरू में से चौदह ध्वनियाँ निकलीं। इन (अइउण्, ऋलृक् एओङ, ऐऔच, हयवरट, लण् आदि) चौदह सूत्रों को लेकर पाणिनीय ने महाव्याकरण शास्त्र रच डाला। उस रचना के पश्चात उसकी व्याख्यायें होते-होते आज इतना बड़ा व्याकरण शास्त्र प्रस्तुत है, जिसका एक भारी संग्रहालय बन सकता है। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों से इसी प्रकार इसी प्रकार वैदिक साहित्य के अंग-प्रत्यंगों का प्रादुर्भाव हुआ है। गायत्री सूत्र है तो वैदिक ऋचायें उनकी व्याख्या हैं।
क्रीड़ा, विनोद, मनोरंजन, संगीत-कला, साहित्य, स्पर्श इन्द्रियों के स्थूल भोग तथा उन भोगों का चिन्तन, प्रिय कल्पना, खेल, गतिशीलता, रुचि, तृप्ति आदि को ‘साम’ के अन्तर्गत लिया जाता है। धन, वैभव, वस्तुओं का संग्रह, शास्त्र, औषधि, अन्न, वस्तु धातु गृह, वाहन आदि सुख- साधनों की सामग्रियाँ ‘अथर्व’ की परिधि में आती हैं।
किसी भी जीवित प्राणधारी को लीजिये, उनकी सूक्ष्म और स्थूल, बाहरी और भीतरी क्रियाओं और कल्पनाओं का गम्भीर एवं वैज्ञानिक विश्लेषण कीजिये, प्रतीत होगा कि इन्हीं चार क्षेत्रों के अन्तर्गत उसकी समस्त चेतना परिभ्रमण कर रही है। (1) ऋक्- कल्याण (2) यज-पौरुष (3) सम-क्रीड़ा (4) अथर्व-अर्थ। इन चार दिशाओं के अतिरिक्त प्राणियों की ज्ञान-धारा और किसी ओर प्रवाहित नहीं होती। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। यही चार ब्रह्माजी के मुख हैं। ब्रह्मा को चतुर्मुखी इसलिए कहा गया है कि वे एक मुख होते हुए भी चार प्रकार की ज्ञान धारा का निष्क्रमण करते हैं। वेद शब्द का अर्थ है- ‘ज्ञान’ इस प्रकार वह एक है, परन्तु एक होते हुए भी वह प्राणियों के अन्तःकरण में चार प्रकार का दिखाई देता है इसलिये एक वेद सुविधा के ऊपर चार भागों में विभक्त कर दिया गया है। भगवान् विष्णु की चार भुजायें भी यही हैं। इन चारों विभागों को स्वेच्छापूर्वक करने के लिये चार आश्रम और चार वर्णों की व्यवस्था की गयी। बालक क्रीड़ावस्था में, तरुण अर्थावस्था में, वानप्रस्थ पौरुषावस्था में और संन्यासी कल्याणास्था में रहता है। ब्राह्मण ऋक है, क्षत्री यजु है, वैश्य अथर्व है, साम शूद्र है। इस प्रकार यह चतुर्विध विभागीकरण हुआ।
यह चारों प्रकार के ज्ञान उस चैतन्य शक्ति के ही स्फुरण हैं, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माजी ने उत्पन्न की थी और जिसे शास्त्रकारों ने गायत्री नाम से सम्बोधित किया है। इस प्रकार चार वेदों की माता गायत्री हुई। इसी से उसे ‘वेदमाता’ भी कहा जाता है इस प्रकार जल तत्व को बर्फ, भाप (बादल, ओस, कुहरा आदि), वायु (हाइड्रोजन-आक्सीजन) तथा पतले पानी के चार रूपों में देखा जाता है, जिस प्रकार अग्नि-तत्व को, ज्वलन, गर्मी, प्रकाश तथा गति के रूप में देखा जाता है, उसी प्रकार एक ‘ज्ञान-गायत्री’ के चार वेदों के चार रूपों में दर्शन होते हैं। गायत्री माता है, तो चार वेद इसके पुत्र हैं।
यह तो हुआ सूक्ष्म गायत्री का, सूक्ष्म वेदमाता का स्वरूप। अब उसके स्थूल रूप पर विचार करेंगे। ब्रह्मा ने चार वेदों की रचना से पूर्व चौबीस अक्षर वाले गायत्री मन्त्र की रचना की। इस एक मंत्र के एक-एक अक्षर में सूक्ष्म तत्व आधारित किये गये हैं, जिनके पल्लवित होने पर चार वेदों की शाखा-प्रशाखायें तथा त्रुटियाँ उद्भूत हो गयीं। एक वट के बीज के गर्भ में महान वट वृक्ष छिपा होता है। जब वह अंकुर रूप में उगता है, वृक्ष के रूप में बड़ा होता है, तो उसमें असंख्य शाखायें, टहनियाँ, पत्ते, फूल, फल लद जाते है। इन सबका इतना बड़ा विस्तार होता है –जो उस मूल वट बीज की उपेक्षा करोडों-अरबों गुना बड़ा होता है। गायत्री के चौबीस अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं, जो प्रस्फुटित होकर वेदों के महाविस्तार के रूप में अवस्थित होते हैं।
व्याकरण शास्त्र का उद्गम शंकर जी के वे चौदह सूत्र हैं, जो उनके डमरू से निकले थे। एक बार महादेवजी ने आनन्द-मग्न होकर अपना प्रिय वाद्य डमरू बजाया। उस डमरू में से चौदह ध्वनियाँ निकलीं। इन (अइउण्, ऋलृक् एओङ, ऐऔच, हयवरट, लण् आदि) चौदह सूत्रों को लेकर पाणिनीय ने महाव्याकरण शास्त्र रच डाला। उस रचना के पश्चात उसकी व्याख्यायें होते-होते आज इतना बड़ा व्याकरण शास्त्र प्रस्तुत है, जिसका एक भारी संग्रहालय बन सकता है। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों से इसी प्रकार इसी प्रकार वैदिक साहित्य के अंग-प्रत्यंगों का प्रादुर्भाव हुआ है। गायत्री सूत्र है तो वैदिक ऋचायें उनकी व्याख्या हैं।
ब्रह्मा की स्फुरणा से गायत्री प्रादुर्भाव
अनादि परमात्म तत्व ने, ब्रह्मा से यह सब कुछ उत्पन्न किया। सृष्टि
उत्पन्न करने का विचार उठते ही ब्रह्मा में एक स्फुरणा उत्पन्न हुई, जिसका
नाम है-शक्ति। शक्ति के द्वारा दो प्रकार की सृष्टि-एक जड़ दूसरी चैतन्य।
जड़ सृष्टि का संचालन करने वाली शक्ति ‘प्रकृति’ और
चैतन्य
सृष्टि को उत्पन्न करने वाली शक्ति का नाम ‘सावित्री’
है।
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लोगों की राय
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